a poem from a school book
कक्षा 11वीं 12वीं की हिंदी व अंग्रेजी की पाठ्य पुस्तकों में बहुत सारी कहानियां हैं जिनका मतलब शायद कक्षा में पढ़ते समय ना समझ आए परंतु उन किताबों में लिखी हर एक कहानी का हर वाक्य का सार हमें तजुर्बे मिलने पर ही समझ आता है। समाज में बनी दीवारों को शायद हम कक्षाओं में बैठकर और पन्नों पर पढ़कर नहीं समझ सकते, वास्तविक तौर पर उनकी गहराइयों को और ऊंच-नीच के इन तराजू को समझने के लिए हमें जमीनी स्तर पर उतारकर अवलोकन करना होगा।
कक्षा 12वीं की अंग्रेजी की पाठ्यपुस्तक 'Flamingo' में एक कविता को डाला गया है जिसके रचयिता Stephen Spender है। इस कविता का शीर्षक एक झोपड़पट्टी में प्राथमिक विद्यालय की कक्षा के नाम पर ही रखा गया है (An Elementary school Classroom in a Slum)। कविता बेहद छोटी है किंतु इसके शब्द हमें सोचने पर मजबूर कर देते हैं।
इसकी शुरुआत इस प्रकार है कि किस तरह झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले बच्चों को वो सब पढ़ाया जाता है जो उनके लिए कुछ मायने नहीं। भूख और दरिद्रता के शिकंजे में वे इस प्रकार जकड़े जा चुके हैं कि उन्हें खुद का वजूद महसूस नहीं होता। कवि ने जिस प्रकार उन बच्चों के शारीरिक रूप के चित्र को उकेरा है, वह हमें रोजमर्रा के जीवन में देखने को मिलता है लेकिन हम खुद के जीवन में इतने व्यस्त हो गए हैं, हम उन्हें देख कर भी अनदेखा कर देते हैं। समाज दो तबकों में बंटा हुआ नजर आता है जिसमें एक तरफ के लोग संघर्ष करते हैं कि उन्हें जीवन में ऐश-आराम और खुशियां मिले वही दूसरी तरफ वे लोग हैं जो एक वक्त के खाने के लिए संघर्ष करते हैं और जिन्हें अपनी मौजूदगी तक ज्ञात नहीं।
कविता के एक हिस्से में बताया गया है कि एक बच्चा जिसके मन में उमंग है इस धरती की खूबसूरती देखने की किंतु धूल और मिट्टी के गुबार में वह इलाका गिर गया है जिस कारण उन्हें सूरज का चेहरा देखने तक को नसीब नहीं। वह बच्चा उस कक्षा के कोने में बैठा है जिस विद्यालय की दीवारें जर्जरा गई है और सभी अन्य छात्र हताश होकर कक्षा में बैठे है, और वह बच्चा बाहर पेड़ पर खेलती एक गिलहरी को निहार रहा है। शायद उसके मन में सवाल उठ रहा हो कि जो आजादी खेलने की व खुश होने की उस गिलहरी के पास है, वह उन्हें नहीं मिली। कक्षा के अंदर का माहौल और बच्चों के दिमाग के अंदर चल रही बातें बहुत विपरीत है क्योंकि कक्षा में बहुत खूबसूरत चीजों की तस्वीर लगी है जैसे कि संसार का एक नक्शा। विडंबना यह है कि जिन बच्चों ने अपनी बस्ती के अलावा बाहर का कुछ नहीं देखा और उनको संसार के बारे में पढ़ाया जा रहा है।
आर्थिक रूप से परेशान व्यक्ति का जीवन किस प्रकार कष्टदाई होता है यह सब इस कविता में दिखाया गया है। वह व्यक्ति कितनी मुश्किल से तिनका- तिनका जोड़ कर अपने सर पर छत का इंतजाम करता है परंतु देखने वाले कहते हैं कि वह मकान में नहीं रहता! हम घबरा जाते हैं खुद के दुखों से लेकिन हम भूल जाते हैं कि कोई हमसे ज्यादा दुखी होगा। सब कुछ होने के बावजूद भी हम खुद को असहाय महसूस करते हैं लेकिन भूल जाते हैं कि असल में असहाय कौन है! हम भूल जाते हैं उन चीजों की कदर करना जो हमारे पास है, लेकिन असल मायने में उन वस्तुओं की सही कीमत वे ज्यादा अच्छे तरीके से जानता है जिसके पास वह नहीं है।
कवि बताता है कि उन कक्षाओं की दीवारों पर विलियम शेक्सपियर जैसे महान हस्ती की तस्वीर है, किसी खूबसूरत घाटी में खिले फूलों की तस्वीर है, किसी नीले व चटक रंग के आसमान की तस्वीर है, लेकिन उस जगह रह रहे लोग उन खूबसूरत तस्वीरों का मतलब नहीं समझ पा रहे हैं क्योंकि उनके लिए खूबसूरती की परिभाषा शायद शून्य के बराबर है।
इस सब के बावजूद कष्टदायक स्थिति यह है कि उन बच्चों के भविष्य को सुधारने के लिए कुछ प्रयास नहीं किया जाता जब तक कि कोई उच्च पद का सरकारी कर्मचारी वहां निरीक्षण हेतु नहीं आता, इसके बावजूद यह भी सुनिश्चित नहीं किया जा रहा कि वह उच्च पद का अधिकारी उनके हित के लिए कुछ ठोस कदम उठा भी पाएगा या नहीं!
अंत में कवि इस बात की आशा करता है कि भविष्य में शायद उन बच्चों को खुश होने का मौका मिले, शायद उन्हें कभी खुले आसमान तले खेलने का मौका मिले और वो जीवन जीने का मौका मिले जो उनमें उल्लास भर दे, लेकिन आज की स्थिति उनके प्रति केवल दयनीय है।
कवि द्वारा यह कविता बहुत समय पहले रचित की गई थी लेकिन यह आज भी उतनी ही सटीक है जितना पहले थी। सामाजिक अन्याय और वर्ग विभाजन को इस कविता में बखूबी दिखाया गया है, जो आधुनिक समय में भी मौजूद है। कमजोर आर्थिक स्थिति का व्यक्ति आज भी उन धूल भरी बस्तियों में और कष्ट भरे दिनचर्या में जीने को मजबूर है। वह हर दिन अपनी मानसिक स्थिति को मजबूत करता है ताकि वह अस्वीकृति का सामना कर सके, पिछड़े होने के कारण भेदभाव सहन कर सके। उसके जीवन को इस प्रकार ढाल दिया गया है कि अब वह खुद को आगे नहीं बढ़ा सकता, जो उसके पास है उसे उसी में संतोष करना होगा। वह लाचार है उसी दायरे में काम करने के लिए जिससे वह केवल मात्र अपने परिवार का पेट भर सके। यहां के बच्चे शारीरिक रूप के साथ-साथ मानसिक रूप से भी कमजोर हैं क्योंकि यह दरिद्रता उनके सपने देखने की क्षमता को खा जाती है।
इस कविता का सार सही मायने में वही समझ सकता है जो सिक्के के दोनों पहलुओं को जानता हो। दुनिया में आधुनिकता अवश्य ही फैल रही है लेकिन आज भी वर्गों के विभाजन साफ तौर पर देखे जाते हैं और इनके बीच की खाई बढ़ती ही जाती है। शायद इसीलिए अंतिम पंक्तियों में कवि ने इस बात की कल्पना की है कि हो सकता है एक दिन ऐसा जरूर आए जब इन बच्चों को अपने जीवन में खुशियां मिले और वह भी एक साफ और खूबसूरत गगन के तले खेल सके!
बिल्कुल सही राजीव। यही हमारे समाज की एक कड़वी सच्चाई है।
ReplyDeleteHonest views bro
ReplyDeleteAmazing write-up!
ReplyDeleteAmazing work rajeev👍
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